خبيئة نفي من عهود سحيقة | ومن جوف آباد مضت قبل مولدي | |
وأمسك في أغوار نفسي ولا أرى | محياك إلا كالخيال المشرد | |
علمتك حتى أنت مني بضعة | جهلتك حتى أنت في غير مشهد | |
ويا طالما أخلفت لي كل موعدي | ويا طالما ألقاك في غير موعد | |
عجبت فكم من نفرة تنفرينها | على فرط ما تبدينه من تودد | |
حديثك من نفسي قريب وإنما | أخالك في واد من التيه سرمد |